Published On: Sat, Nov 23rd, 2024

Rajasthan By Election Results 2024 Analysis; BJP Congress | Kirori Lal Meena, Govind Singh Dotasara, Hanuman Beniwal | डोटासरा कौनसे गीतों पर डांस करेंगे, किरोड़ी कैसे मुंह खोलेंगे: राजस्थान उपचुनाव में परिवार हारे, बेनीवाल के हाथ से मिटी ‘जीत की रेखा’ – Rajasthan News


राजस्थान विधानसभा के उपचुनाव के परिणामों में भविष्य के लिए बहुत कुछ छुपा है। परिणामों ने जातिवाद के माध्यम से लोगों को बांटने वालों को बेनकाब कर दिया। पारिवारिक मोह से भी पीछा छुड़ा लिया।

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व्यक्तिवादी व्यवस्था को खत्म कर दिया और परंपराएं तो ध्वस्त ही हो गईं। प्रदेश में ये पहला मौका है, जब सत्ता में रहते भाजपा को उपचुनाव में इतनी बड़ी जीत मिली है। ये चुनाव पूरी तरह चेहरों पर आधारित था। जनता ने अपनी शर्तों पर सलूंबर में तो सहानुभूति को जीता दिया, लेकिन रामगढ़ में हरा भी दिया।

खींवसर में मंत्री गजेंद्र सिंह की मूंछों की इज्जत बच गई, लेकिन दौसा में वोट मांगने के लिए भिक्षुक बने किरोड़ीलाल मीणा को चुप करा दिया। आरएलपी के हनुमान बेनीवाल का बयान भी धरा रह गया, जिसमें उन्होंने कहा था- भाजपा के लिए प्रचार में मोदी-शाह आएंगे, लेकिन खींवसर में जीत की रेखा सिर्फ मेरे हाथ में है।

उधर, नतीजों का एक लाइन में विश्लेषण ये है कि भाजपा सरकार एक साल पूरा करने जा रही है। मुख्यमंत्री के पास भी अब बताने को होगा कि सरकार ने बहुत कुछ किया है।

उपचुनाव के परिणामों में कई राजनीतिक मायने छुपे हैं। एक-एक कर उन्हें समझते हैं।

चुनाव परिणामों में सबसे ज्यादा नुकसान किसे और क्यों? इन उप चुनावों ने तीन नेताओं को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा और भाजपा सरकार में मंत्री किरोड़ी लाल मीणा राजस्थान की राजनीति में काफी समय से चर्चा में है। डोटासरा, मंत्री मीणा को अपना साढू बताते रहे हैं, क्योंकि किरोड़ी सरकार को लगातार घेर रहे थे। उन्होंने इस्तीफा तक दे रखा था। ये भी कहा जाता है कि दबाव डालकर उन्होंने अपने भाई जगमोहन मीणा को टिकट दिलाया। अब किरोड़ी के भाई हार गए। उपचुनाव में भी कांग्रेस 4 से एक सीट पर आ चुकी है। ऐसे में दोनों साढू भाई सकते में हैं। डोटासरा अब कौनसे गीतों पर नृत्य करेंगे और किरोड़ी अब कैसे मुंह खोलेंगे ये बड़ा संकट खड़ा हो गया है. क्योंकि डोटासरा चुनाव में डांस तो कर रहे थे, लेकिन आंगन टेढ़ा था।

खींवसर में परंपरा थी कि इलाके में लोग सत्ता के विरोध में जाकर वोटिंग करते थे। जातिगत जनाधार मजबूत था। इस बार ये बंट गया। आरएलपी के संयोजक हनुमान बेनीवाल को बड़ा नुकसान हुआ है। विधानसभा में पार्टी का नाम लेने वाला नहीं बचा। दूसरा भाई का टिकट काटकर पत्नी काे देने का प्रयोग भी सफल नहीं रहा।

झुंझुनूं में ओला परिवार जीत दर्ज नहीं कर पाया। एक सभा में सांसद बृजेंद्र ओला ने कहा था कि पार्टी ने बेटे को जबरन टिकट दिया और कहा कि अगर उनका परिवार चुनाव नहीं लड़ेगा तो जमानत जब्त हो जाएगी।

झुंझुनूं में ओला परिवार जीत दर्ज नहीं कर पाया। एक सभा में सांसद बृजेंद्र ओला ने कहा था कि पार्टी ने बेटे को जबरन टिकट दिया और कहा कि अगर उनका परिवार चुनाव नहीं लड़ेगा तो जमानत जब्त हो जाएगी।

चुनाव परिणाम में चौंकाने वाले तीन फैक्टर क्या है? पहला : कांग्रेस अपने परंपरागत गढ़ झुंझुनूं में चुनाव हार गई। यहां बृजेंद्र ओला के सांसद बनने पर बेटे अमित ओला को पार्टी ने टिकट दिया था, लेकिन यहां पार्टी हार गई। भाजपा का खाता यहां सालों बाद खुला है। पिछले दिनों चुनावी सभा में सांसद बृजेंद्र ओला ने कहा था कि पार्टी ने बेटे को जबरन टिकट दिया और कहा कि अगर उनका परिवार चुनाव नहीं लड़ेगा तो जमानत जब्त हो जाएगी। कांग्रेस झुंझुनूं को लेकर इतनी आश्वस्त थी कि यहां प्रचार में कोई राज्य स्तर का बड़ा नेता तक नहीं आया। पायलट समर्थक रहे निर्दलीय राजेंद्र गुढ़ा ने उनके ही समर्थक बृजेंद्र ओला के बेटे अमित को हरवा दिया। गुढ़ा कांग्रेस सरकार में मंत्री भी रहे हैं।

दूसरा : पार्टी राजस्थान में कुछ सीटों पर जनाधार खोती जा रही है। खींवसर में गठबंधन से अलग होकर अकेले चुनाव लड़ने का फैसला लिया। कांग्रेस की यहां जमानत जब्त हो गई। सलूंबर में भी टक्कर में भाजपा और बीएपी रही। चौरासी सीट पर भी अपना प्रभाव लगभग खो दिया है।

तीसरा : बीएपी ने भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए खतरे की घंटी बजा दी है। बीएपी नेता और सांसद राजकुमार रोत की लोकप्रियता और अलग प्रदेश की मांग के आधार पर वागड़ और उदयपुर के इलाकों में पार्टी बड़ी ताकत के रूप में उभर रही है। सलूंबर में भाजपा बीएपी से हारते-हारते बची।

कांग्रेस की इतनी बुरी हार की बड़ी वजह क्या है? पुरानी दंत कथा है। सबने सुनी होगी। खरगोश और कछुए की। उपचुनाव को लेकर तीन महीने पहले कोई पूछता कि राजस्थान में कौन जीत रहा है तो भाजपा वाले ही कह रहे थे एक से दो हो जाए तो बड़ी बात है। ऐसे में कांग्रेस की रणनीति खरगोश की तरह थी। कांग्रेस इस दंभ में थी कि वो सात में से छह सीटें जीत ही रही है। इधर, भाजपा एक-एक सीट पर ताकत से जुटी रही। कांग्रेस ने सिर्फ हॉट सीट दौसा पर फोकस किया। कांग्रेस ने सीटों की जिम्मेदारी सांसदों पर छोड़ दी।

  • उपचुनाव में कई सीटों पर कांग्रेस नेता पहुंचे ही नहीं। झुंझुनूं, सलूंबर, चौरासी में अशोक गहलोत, सचिन पायलट और गोविंद सिंह डोटासरा तक ने प्रचार नहीं किया। स्थानीय स्तर के नेता भी सक्रिय नहीं थे।
  • खींवसर में कांग्रेस ने आरएलपी के साथ गठबंधन नहीं किया। जबकि बेनीवाल अंतिम समय तक इंतजार करते रहे।
  • रामगढ़ में भाजपा के कई मंत्रियों का डेरा रहा। केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव बराबर लगे रहे। खुद ने चुनाव को हिन्दू-मुस्लिम नहीं बनाया। अन्य नेताओं ने हिंदू वोटों पर फोकस किया। आखिरी दिनों में तिजारा के विधायक बाबा बालकनाथ को प्रचार में उतारा। उनके बयानों से चुनावी माहौल गर्माया। इससे बीजेपी के कार्यकर्ताओं में उत्साह बढ़ा। यहां बटेंगे तो कटेंगे नारे ने अंदर के अंदर माहौल खड़ा किया।
  • देवली-उनियारा में कांग्रेस ने निर्दलीय नरेश मीणा को हल्के में लिया। साथ ही उन पर व्यक्तिगत कमेंट भी किए, जिसका रिएक्शन हुआ और कांग्रेस तीसरे नंबर पर रही। एसडीएम थप्पड़ मामले को भी हैंडल भी नहीं कर पाई।
सीएम भजनलाल और भाजपा प्रदेशाध्यक्ष मदन राठौड़ दोनों को उपचुनाव के परिणामों से फायदा हुआ है। राजनीतिक कद बढ़ा है।

सीएम भजनलाल और भाजपा प्रदेशाध्यक्ष मदन राठौड़ दोनों को उपचुनाव के परिणामों से फायदा हुआ है। राजनीतिक कद बढ़ा है।

उपचुनाव में फायदा किसे हुआ? भाइयों को : भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष मदन राठौड़ मुख्यमंत्री भजनलाल को अपना भाई बताते हैं। भास्कर को दिए इंटरव्यू में कह चुके हैं भाई की तरह वे साथ में काम कर रहे हैं। ऐसे में दोनों भाई सबसे बड़े सियासी लाभार्थी है। चूंकि एक से चार सीट हुई है तो मुख्यमंत्री और प्रदेशाध्यक्ष को सीधा फायदा है। टिकट बंटवारे से लेकर चुनाव तक की कमान इन नेताओं ने संभाल रखी थी। अब पर्ची सरकार और पर्ची मुख्यमंत्री के आरोप लगाते हुए जब भी विपक्ष घेरने का प्रयास करेगा, तो उपचुनाव का रिजल्ट एक जवाब की तरह काम करेगा। अब सत्ता और संगठन इस रिजल्ट के आधार पर कह सकता है कि जनता ने सरकार और उनके फैसलों पर मुहर लगा दी है।

जीत से बढ़ा कद : कैबिनेट मंत्री गजेंद्र सिंह खींवसर ने चुनाव का मोर्चा संभाला था। उन्होंने ऐन वक्त पर मूंछों वाला बयान देकर चौंकाया था। इस परिणाम से उनका कद भी बढ़ा है। लंबे समय से अपने दम से खींवसर में बीजेपी सत्ता में आने के लिए संघर्ष कर रही थी। ज्योति मिर्धा की भी नागौर की राजनीति में पूछ-परख बढ़ेगी, क्योंकि सियासी दुश्मन के हारने के पीछे भी जीत छिपी हुई होती है।

हार के बावजूद : प्रदेश में भले कांग्रेस सात में से एक ही सीट जीती है, लेकिन सचिन पायलट को बड़ा फायदा हुआ है। दौसा में उनके समर्थक डीसी बैरवा जीत गए। इनका किरोड़ी के सामने कोई बड़ा कद नहीं था। पायलट ने आखिरी समय में जिस तरह चुनाव कैंपनिंग की। इससे जीत का श्रेय उनके खाते में गया है। देवली-उनियारा सीट पर निर्दलीय चुनाव लड़े और एसडीएम थप्पड़ मामले में चर्चा में आए नरेश मीणा भले ही चुनाव हार गए, लेकिन उनका कद काफी बढ़ गया। टोंक जिले में अब तक किसी भी निर्दलीय प्रत्याशी ने नरेश मीणा से ज्यादा वोट नहीं लिए। नरेश मीणा मीणा को 59478 मत मिले हैं। नरेश मीणा पहले राउंड को छोड़कर दूसरे राउंड से ही दूसरे नंबर पर थे। कुछ राउंड में उन्होंने भाजपा के उम्मीदवार से भी ज्यादा वोट लिए।

कांग्रेस के हिस्से में सिर्फ एक दौसा सीट आई है। जहां सचिन पायलट के समर्थक डीसी बैरवा ने जीत दर्ज की।

कांग्रेस के हिस्से में सिर्फ एक दौसा सीट आई है। जहां सचिन पायलट के समर्थक डीसी बैरवा ने जीत दर्ज की।

चुनाव परिणामों में क्या कोई नया ट्रेंड देखने को मिला इस बार वोटरों ने सबसे ज्यादा जातिवादी राजनीति को नकारा है। साथ ही कई मैसेज देने की कोशिश की है। दौसा में सामान्य सीट पर किरोड़ी के भाई को जीतने नहीं देना ये मैसेज है। विरोधियों ने इस बात को मुद्दा बनाया कि किरोड़ी खुद मंत्री हैं, उनके भतीजे राजेंद्र मीणा महवा से बीजेपी विधायक हैं और अब भाई को टिकट देकर एक ही परिवार में सत्ता का केंद्रीकरण कर दिया। इस फैक्टर ने भी नुकसान किया। किरोड़ी मीणा और उनके भतीजे सामान्य सीट पर जीते हैं।

झुंझनूं में परंपरागत मुस्लिम और दलित वोट गुढ़ा की तरफ शिफ्ट हो गया। ओला और हनुमान बेनीवाल को मिल रहा परंपरागत वोट भी दूसरी जगह शिफ्ट हो गया। कुल मिलाकर युद्ध को लेकर कहा जाता है कि आपकी सेना की टक्कर ऐसी होनी चाहिए, जैसी कि अंडे की पत्थर से। यह कमजोर और मजबूत बिंदुओं के साइंस पर प्रभावित होती है। भाजपा ने ये उपचुनाव इसी नीति पर लड़ा।

इन परिणामों से आगे क्या असर पड़ेगा? मुख्यमंत्री : सीएम भजनलाल बिना किसी दबाव में सरकार चला पाएंगे। रिजल्ट्स ने आलाकमान को भजनलाल सरकार को लेकर एक पॉजिटिव संदेश दिया है। ऐसे में सीएम को ज्यादा फ्री हैंड दिया जा सकता है। साथ ही किरोड़ी मीणा और अन्य के प्रेशर से मुक्ति मिल जाएगी। उपचुनाव के बाद मंत्रिमंडल में फेरबदल की चर्चा है तो संभवत: उन्हें फ्री हैंड मिल जाए।

मदन राठौड़ : पार्टी प्रदेश अध्यक्ष मदन राठौड़ के लिए ये पहली परीक्षा थी, जिसे उन्होंने अच्छे नंबरों के साथ पास किया है। ऐसे में उनकी छवि अच्छे रणनीतिकार की बन सकती है। रिजल्ट ने बताया है कि आलाकमान ने अध्यक्ष के रूप में सही चुनाव किया है। इधर, पार्टी में बड़े नेता से लेकर कार्यकर्ता तक ये रिजल्ट उत्साह भरेगा और गुटबाजी भी कम होगी।

गोविंद सिंह डोटासरा : इस उपचुनाव के पहले से लेकर अब तक ये माना जा रहा है कि डोटासरा की इस पद पर रहते ये अंतिम परीक्षा होगी। कप्तान के रूप में डोटासरा का ये प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। अब प्रदेश अध्यक्ष के रूप में नए चेहरे की तलाश जल्द शुरू हो जाएगी। कांग्रेस में गुटबाजी पहले से ही है और रिजल्ट के बाद इसके और बढ़ने की आशंका बढ़ गई है।

इसी सभा में हनुमान बेनीवाल ने कहा था- यदि खींवसर हार गए तो लिखा जाएगा कि राजस्थान से राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी(आरएलपी) मिट गई।

इसी सभा में हनुमान बेनीवाल ने कहा था- यदि खींवसर हार गए तो लिखा जाएगा कि राजस्थान से राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी(आरएलपी) मिट गई।

क्या चुनाव में जातिगत और परिवारवाद की राजनीति का आधार हिला है? क्या इसका असर आगे पड़ेगा? खींवसर, झुंझनूं, देवली-उनियारा, दौसा चारों जगहों पर हमेशा से अलग पैटर्न पर चुनाव हुए। जिन जातियों को पार्टियां अपना फिक्स वोट बैंक मानती थी, उन्होंने भारी झटका दिया। कांग्रेस ने झुंझनूं में अल्पसंख्यक वोट बैंक से झटका खाया। आरएलपी को अपने कोर वोट बैंक के दो फाड़ होने का सामना करना पड़ा। दौसा में सवर्णों ने बीजेपी से दूरी बनाई। देवली-उनियारा में कांग्रेस जिन्हें परंपरागत वोटर मानती थी वो निर्दलीय की तरफ चले गए। रामगढ़ में सहानुभूति फैक्टर के बावजूद कांग्रेस लाभ नहीं ले पाई। चौरासी और सलूंबर में बीएपी पहले से ही कांग्रेस के आदिवासी वोट बैंक में सेंध मार चुकी है। बीएपी ने अपने इस वोट बैंक के सहारे पिछले विधानसभा चुनाव के जैसे चौरासी सीट लगातार जीत ली और सलूंबर में बीजेपी से सम्मानजनक हार का सामना किया।

बूथ मैनेजमेंट : माहौल कितना भी आपके पक्ष में हो, लेकिन बूथ मैनेजमेंट नहीं किया तो जीत दरवाजे पर आकर फिसल सकती है। जैसे, सलूंबर में बीएपी के साथ हुआ। यहां पर बीएपी करीब 1285 वोटों से हारी। रामगढ़ में कांग्रेस इसका उदाहरण है।

4 परिवार हारे, 1 जीता : चुनावों में इस बार वोटर्स ने परिवारवाद को भी करारा जवाब दिया है। खींवसर में आरएलपी के हनुमान बेनीवाल की पत्नी कनिका चुनाव हार गईं। झुंझुनूं में सांसद बृजेंद्र ओला के बेटे अमित ओला जीत दर्ज नहीं कर पाए। दौसा में किरोड़ीलाल मीणा के भाई जगमोहन को शिकस्त झेलनी पड़ी। रामगढ़ में जुबेर खान के बेटे आर्यन के हिस्से में भी हार आई। हालांकि सलूंबर में अमृतलाल मीणा की पत्नी शांता मीणा ने जीत दर्ज की।

क्या चुनाव में जातिगत राजनीति का आधार हिला है? क्या इसका असर आगे पड़ेगा? खींवसर, झुंझनूं, देवली-उनियारा, दौसा चारों जगहों पर हमेशा से अलग पैटर्न पर चुनाव हुए। जिन जातियों को पार्टियां अपना फिक्स वोट बैंक मानती थी, उन्होंने भारी झटका दिया। कांग्रेस ने झुंझनूं में अल्पसंख्यक वोट बैंक से झटका खाया। आरएलपी को अपने कोर वोट बैंक के दो फाड़ होने का सामना करना पड़ा।

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