Maharana Pratap: मेवाड़ के वीर योद्धा का जीवन और संघर्ष

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महाराणा प्रताप, वीरता की मिसाल, जिन्होंने मुगलों से समझौता नहीं किया. हल्दीघाटी युद्ध, चेतक की वीरता और जंगलों में जीवन बिताया. 19 जनवरी 1597 को चावंड में अंतिम सांस ली.

घोड़े की टापों, तलवारों की चमक और आत्मसम्मान की आग से भरे एक नाम – महाराणा प्रताप. एक वीरता की जीवित मिसाल, जो न झुका, न रुका, बस लड़ा – जब तक आखिरी सांस चली. ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया के अवसर पर लोकल 18 आपको ले चलता है उस राजपूत योद्धा के जीवन के कुछ ऐसे पन्नों पर, जो इतिहास में सुनहरे अक्षरों से लिखे गए हैं.

कुंभलगढ़ का सूरज<br />ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया 1540 में कुंभलगढ़ के किले में प्रताप का जन्म हुआ. किसी ने नहीं सोचा था कि यही बालक आगे चलकर मुगलों की नींव हिला देगा. बचपन से ही वे स्वाभिमानी थे. सत्ता का लोभ उन्हें कभी नहीं छू पाया. उन्होंने मेवाड़ के लिए जंगलों में घास की रोटियां खाईं, लेकिन अकबर से समझौता नहीं किया.

जब खून से हुआ राजतिलक<br />1572 में गोगुंदा की धरती पर राजतिलक का समय आया, तब हालात इतने खराब थे कि तिलक के लिए कुमकुम भी नहीं था. ऐसे में सलूंबर के राव ने अपना अंगूठा काटकर रक्त से प्रताप का तिलक किया. एक राजा का राज्य उस खून से शुरू हुआ, जो सिर्फ स्वाभिमान के लिए बहाया गया. यह परंपरा आज भी जीवित है.

हल्दीघाटी: युद्ध नहीं, इतिहास था<br />18 जून 1576 को हल्दीघाटी का युद्ध लड़ा गया – जहां की मिट्टी आज तक पीली है, क्योंकि वह रणभूमि खून से रंगी हुई थी. हल्दी घाटी का वह दर्रा, जहां खून नदी की तरह बहा था, इस युद्ध की गवाह है.

चेतक –वह घोड़ा, चेतक, जो इतिहास के पन्नों में अमर हो गया, जिसने घायल होकर भी प्रताप को युद्धभूमि से बाहर निकाला. उसकी समाधि आज भी लोगों को वीरता की प्रेरणा देती है. मेवाड़ में शुरू से ही पशु को परिवार का सदस्य माना गया और चेतक ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

महल नहीं, जंगल चुना<br />महाराणा प्रताप ने मुगल दरबार की चमक-धमक को ठुकराया और जंगलों की गुफाओं को अपना महल बना दिया. मेवाड़ के आदिवासी लोगों के साथ उन्होंने जंगलों में ही अपना ज्यादातर जीवन बिताया. आज भी मेवाड़ में कई ऐसी जगहें हैं, जो महाराणा प्रताप के जीवन की गवाही देती हैं.

चावंड में उन्होंने अपनी अंतिम राजधानी बनाई और वहीं 19 जनवरी 1597 को अपनी आखिरी सांस ली. आज भी उस जगह उनका स्मारक लोगों को इतिहास की गहराइयों में ले जाता है.

प्रताप के पुत्र अमर सिंह ने भले ही बाद में गद्दी संभाली, लेकिन “प्रताप” नाम आज भी गर्व, बलिदान और हौसले का प्रतीक है. मेवाड़ की धरती का यह लाल आज भी लोगों के दिलों में “प्रातः स्मरणीय” के रूप में विराजमान है.