Published On: Sun, Aug 4th, 2024

Irshad Kamil Interview: हिंदी में ‘फ्रिवलस’ लोगों के लिए मेहनत ज्यादा होती है, सिनेमा भी वैसा ही बन जाता है


गीतकार इरशाद कामिल के फिल्म ‘चमकीला’ के लिखे गाने इस साल के सबसे लोकप्रिय गाने बन चुके हैं। उनका ‘कैफे इरशाद’ भी रीबूट होने वाला है और उनके पास फरमाइशें फिल्में लिखने की भी खूब आ रही हैं। मुंबई की बारिश में गीतों की रिमझिम के बीच इरशाद से ये खास बातचीत की ‘अमर उजाला’ के सलाहकार संपादक पंकज शुक्ल ने। इस इंटरव्यू में इरशाद ने अपने बेहद लोकप्रिय गाने ‘मैनूं विदा करो’ की मेकिंग, सिनेमाई लेखन करने वालों की साहित्य में भूमिका और सिनेमा में भाषा के महत्व पर खुलकर बातें की हैं। इस इंटरव्यू के कुछ अंश रविवार के ‘अमर उजाला’ अखबार में भी प्रकाशित हुए हैं।




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नेटफ्लिक्स वाले कहते हैं कि हमने पूरी दुनिया को हिंदुस्तानियत दिखाने के लिए ‘अमर सिंह चमकीला’ बनाई। ये एक गायक-गीतकार की आत्मकथा है, इसके गीत लिखने का प्रस्ताव आने पर आपकी प्रतिक्रिया थी?

पहली बार में मुझे तो ये ही समझ नहीं आया कि कहीं मुझे अमर सिंह चमकीला जैसे गाने ही तो नहीं लिखने हैं इस फिल्म के लिए या कुछ अलग काम करना है। फिर एक-दो बार की चर्चाओं के बाद मामला साफ हुआ कि मुझे चमकीला की तर्ज पर गाने नहीं लिखते हैं। मुझे फिल्म में जिस तरह की परस्थितियां हैं, उन पर गाने लिखने हैं। इसी दौरान मुझे मजे की बात एक और समझ में आई पंकज जी, कि हर आर्टिस्ट की दो जिंदगियां होती है। एक जिंदगी वह जो उसके हुनर से जनता के बीच बनती है और एक वह जो बहुत कम लोगों के सामने नुमाया होती है। तो चमकीला को जिस जिंदगी को लोगों ने ज्यादा नहीं जाना, उसे मुझे अपने लफ़्ज़ों का हिस्सा बनाना था।

और, ‘रॉकस्टार’ से लेकर ‘अमर सिंह चमकीला’ तक एक कलाकार का जो दर्द है, वह वैसा ही है?

गैर मामूली शख्स जब मामूली परिस्थितियों में पल रहा होता है तो सारी जिंदगी उसे खुद को साबित करते रहना पड़ता है। चमकीला भी पूरी जिंदगी अपनी इन्हीं परस्थितियों से जूझता रहा। जातिगत भेदभाव, अमीरी-गरीबी का भेदभाव, पढ़े-लिखे और अनपढ़ का भेदभाव, उसने सब देखा। लेकिन, एक अच्छा कलाकार, एक अच्छा गीतकार और संगीतकार उसमें था। वह अपने आप को हर बार साबित करता और हर बार किसी न किसी बात पर उसकी तरफ उंगली उठ जाती। कोई ना कोई उसका नुक्स निकाल दिया जाता है। पहले वह गाने लिख रहा था, दूसरे लोग उसके गाने गा-गा के हिट हो रहे थे और मशहूर हो रहे थे। फिर जब वह खुद गाने लगा, तो उसको बोलने लगे कि अरे, यह तो अश्लील गाने गाता है..। सारी उम्र खुद को साबित करने में लगे रहे इंसान को मौत भी अप्राकृतिक ही हासिल हुई।


उस सिचुएशन का वो गाना, मैंनूं विदा करो..! हाल-फिलहाल के बरसों का ये सबसे बेहतरीन गाना है। बता सकते हैं कि इसकी रचना कैसे हुई?

वह एक बड़ा ही जादुई लम्हा सा था। हम रात को रहमान साहब के स्टूडियो में थे। मैं कोई फिल्म कर रहा होता हूं तो उसकी पूरी पटकथा मेरे जहन में घूमती रहती है क्योंकि मैं उसे बार बार पढ़ता हूं और किरदार की मनोदशा समझने की कोशिश करता हूं। उस रात हम लोग बैठे थे। इम्तियाज थे, मैं था, रहमान साहब थे। अचानक से रहमान प्यानो पर कुछ बजाने लगे। संगीत बजता है तो माहौल बन ही जाता है। उन्होंने कहा कि हॉल की लाइट्स थोड़ी मद्धिम कर दो। उन्होंने जो नोट्स बजाए, वे किसी विदा गीत के से निकले। मैं सामने ही बैठा था, थोड़ा सा दूर समझ लीजिए कि 10 फीट की दूरी पर मैं बैठा हूं। मुझे अचानक से यह बात सूझी क्योंकि हम शायद इस सिचुएशन पर काम कर रहे हैं तो यहां से कंपोजीशन आने वाली है। मैंने उसको लिखना शुरू कर दिया। वहीं साथ के साथ वह कंपोज करते जा रहे थे। बात होती जाती थी, एक बात बनती जाती है। और, सुबह तीन बजे के करीब पूरा गाना हमारे हाथ में था। सबने फिर से इसे सुना और इम्तियाज को लगा कि इसमें एक भी लफ्ज बदलने की जरूरत नहीं है।

आपके गानों में एक तरह की साहित्यिक अभिरुचि झलकती है, कितना जरूरी है हिंदी सिनेमा में साहित्यिक स्वाद वाले गाने लिखे जाना, अपनी बोलियों वाले गाने लिखे जाना?

बहुत ज्यादा जरूरी है। हम लगातार अपनी भाषा से दूर हटते जा रहे हैं। आप हिट फिल्मों को देखेंगे तो उनमें कोई न कोई मिट्टी से जुड़ी बात होती है। किसी खास लहजे में बात होती है तो फिल्म अपनी लगने लगती है। खालिस हिंदी हमें अपनी नहीं लगती है क्योंकि हम इसकी जगह अंग्रेजी लाने की कोशिश करने में लगे रहे हैं। हमारी मोहब्बत उस तरह से उसके साथ नहीं रही है। लेकिन, हिंदी का जो अनमोल साहित्य है हमारे पास, उसका मकसद भी तो पाठकों का मनोरंजन ही रहा है। कविताएं, नाटक सारे इसीलिए तो होते थे। अब, इस तरह के जो थोड़े से साहित्यिक पृष्ठभूमि वाले गीतकार अगर फिल्मों में आएंगे तो वे बहुत सारे लोग जो गानों से हिंदी सीख रहे हैं, उनके लिए बहुत अच्छी बात हो जाएगी। मैं अक्सर ये बात करता हूं कि हिंदी के गानों की व्याकरण जरूर दुरुस्त होनी चाहिए क्योंकि आज का लिखा कल को नजीर बनने वाला है। संवादों में व्याकरण गलत होगी तो इसलिए लोग उसे नहीं अपनाएंगे क्योंकि वह कोई किरदार बोल रहा है लेकिन गानों में…? बिल्कुल नहीं।


20 साल होने को आए, आपको फिल्मों के गीत लिखते हुए। ‘चमेली’ से लेकर अब तक के सफर में आपके कितने ख्वाब पूरे हुए और कितने मुकम्मल होने बाकी हैं? ‘काली औरत का ख्वाब’ तो आपका पूरा हो गया..!

हां, फिल्मफेयर लेडी की अगर आप बात कर रहे हैं तो जरूर पूरा हो गया। वैसे ‘काली औरत का ख्वाब’ का एक बहुत रोचक किताब है। ये अपने तरीके की पहली ऐसी किताब है जिसमें गीतों का बुनावट का हर धागा संजोया गया है। इसमें आपको गीतों की यात्रा देखने को मिलेगी। उसके पहले-पहले के ड्राफ्ट मिलेंगे, डायरी के वे पन्ने मिलेंगे जिन पर ये पहली बार लिखे गए। इसमें पूरा एक अलग नॉस्ताल्जिया है।

लेकिन, फिल्मी रचनाकारों को साहित्यकार मानने की परंपरा अब भी उतनी है नहीं, हां किसी गीतकार के न रहने पर उसे महान जरूर बताया जाता है…ऐसा क्यों?

ये वाकई अपने सवाल तो सही किया है पर मेरे ख्याल से धीरे-धीरे वक्त बदल रहा है। साहित्य अकादमी ने शैलेंद्र पर किताब निकाली है। ज्ञानपीठ पुरस्कार गुलजार साहब को मिला है तो शायद अभी मुझे लगता है कि चीजें बदल रही हैं। पर, अक्सर क्या है कि ये साहित्य की जो संस्थाओं के पीठासीन लोग होते हैं, वे बहुत ही पुस्तकीय सोच रखने वाले लोग होते हैं। आमजन से कटे हुए लोग होते हैं। साहित्य क्या है, इसका कोई पैमाना नहीं होता है। एक पूर्वाग्रह तो फिल्मी गीतकारों को लेकर साहित्यिक संस्थाओं के प्रमुखों में दिखता है।


अक्सर गीतकार अपने जीवन के दर्शन अपने गीतों में पिरोते रहते हैं, आपने अपना जीवन दर्शन किसी गाने में लिखा है?

ऐसे बहुत सारे गीत हैं, जिनमें मैंने अपनी बात कही है। जैसे मेरा एक गीत है, ‘मन के मत पे मत चलियो, ये जीते जी मरवा देगा।’ हम अक्सर कहते हैं कि अरे दिल की सुनो यार, दिल की सुनो। ये एक हद तक सही भी है कि मन के मत पे मत चलियो ये जीते जी मरवा देगा। जिंदगी का मेरा जो फलसफा है, जहां भी मौका मिलता है मैं अपने गानों में डालता रहता हूं।

हाल में एक शोध छात्र ने मुझसे संपर्क किया कि हिंदी सिनेमा में दलितों की कहानी पर बनी प्रमुख फिल्मों की अंतर्धारा कैसी है, तो मुझसे इसे याद करके बताना पड़ा। उस लिहाज से फिल्म ‘अमर सिंह चमकाली’ सिनेमा के सामाजिक कथन का बड़ा हस्ताक्षर है। दलित नायकों की कहानियां कम क्यों आ रही हैं?

नहीं, अब आ रही हैं, बिल्कुल आ रही हैं। जैसे महाराष्ट्र के एक कवि हैं। उन पर पिक्चर बन रही है, वह भी दलित है। हमारे यहां पर आज भी दलित गैर मामूली शख्सियत हैं, उनपर पिक्चरें बनती हैं, हां, यह है कि कम जरूर हैं। हमारे यहां पर हिंदी सिनेमा में यथार्थवादी सिनेमा नहीं बनता है। ये ‘इल्यूजन ऑफ रियलिज्म’ (वास्तविकता का भ्रमजाल) है। दक्षिण में ऐसा नहीं है। मराठी में ऐसा नहीं हैं। मराठी बहुत वास्तविक सिनेमा है। इसकी वजह ये भी है कि जिस तरह के माहौल में हम फिल्में दिखाते हैं तो वहां एक खास तौर तरीका का इंसान ही मल्टीप्लेक्स में जा सकता है, जिसकी जेब में एक खास अमाउंट होना ही चाहिए। हमने असली दर्शक को सिनेमा से दूर कर दिया है। हिंदी सिनेमा में अब मेहनत ‘फ्रिवलस’ (अगंभीर) लोगों के लिए सिनेमा बनाने की ज्यादा होती है तो सिनेमा भी ज्यादातर वैसा ही बन जाता है।

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