बिना हाथ के भी थामी हौसलों की हैंडल… साइकिल को बनाई ताकत, जज्बे से दिव्यांगता को दिया मात!

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World Bicycle Day: विश्व साइकिल डे पर गोविंद खारोल हमें यह याद दिलाते हैं कि ज़िंदगी किसी के लिए आसान नहीं होती, लेकिन जो मुस्कुराकर कठिनाइयों की सवारी करता है, वही असली विजेता होता है. जानें कहानी उस व्यक्ति की जो हौंसलो से उड़ान भर रहा है, जो हर किसी के लिए प्रेरणा है.

कभी आपने सोचा है कि बिना हाथों के कोई साइकिल कैसे चला सकता है? शायद नहीं. लेकिन उदयपुर के गोविंद खारोल इस सवाल का जवाब खुद हैं. एक ऐसा जवाब जो साहस, संघर्ष और संकल्प से भरा हुआ है. जन्म से दोनों हाथों से दिव्यांग होने के बावजूद, गोविंद ने अपनी कमजोरी को कभी भी अपनी मंजिल की राह में आने नहीं दिया.

उनका जीवन एक ऐसी किताब है, जिसके हर पन्ने पर संघर्ष है, लेकिन साथ ही उसमें उम्मीद और हौसलों की रोशनी भी है. जब दूसरे बच्चे खेलते-कूदते थे, तब गोविंद खुद को दुनिया से अलग महसूस करते थे. लेकिन उनके भीतर एक अलग ही आग जल रही थी. खुद को साबित करने की, समाज की सोच को बदलने की.

एक दिन जब उन्होंने किसी को साइकिल चलाते देखा, तो मन में आया- “मैं क्यों नहीं?” यही सवाल उनके जीवन का सबसे बड़ा मोड़ बन गया. गोविंद ने उस दिन ठान लिया कि अब पीछे मुड़कर नहीं देखना.

गिरे, चोटें आईं, लेकिन हर गिरने के बाद उन्होंने खुद से कहा- “मैं हार मानने के लिए नहीं बना हूं. धीरे-धीरे उन्होंने अपने पैरों से साइकिल को संतुलित करना सीखा. आज वे न केवल साइकिल चलाते हैं, बल्कि शहर की साइक्लोथॉन रैलियों में आगे रहते हैं और दूसरों को भी प्रेरित करते हैं.

गोविंद कहते हैं, हाथ नहीं हैं, लेकिन हिम्मत है… और यही सबसे बड़ी ताकत है.दिव्यांगता शरीर की हो सकती है, सोच की नहीं. आज वे कई स्कूलों, संस्थाओं और सामाजिक कार्यक्रमों में मोटिवेशनल स्पीकर के रूप में युवाओं को जीवन से लड़ना सिखा रहे हैं.

विश्व साइकिल डे पर गोविंद खारोल हमें यह याद दिलाते हैं कि ज़िंदगी किसी के लिए आसान नहीं होती, लेकिन जो मुस्कुराकर कठिनाइयों की सवारी करता है, वही असली विजेता होता है.