Published On: Sun, Jun 8th, 2025

तालिबान को अपनी तरफ खींचती चीन और PAK की जुगलबंदी, भारत के लिए मुश्किल


इस्लामाबाद और काबुल के बीच तल्खियां कम करने और हालात सामान्य करने के लिए ड्रैगन लगातार कूटनीतिक दखल दे रहा है. बीते मई महीने के आखिरी हफ्ते की शुरूआत के साथ ही बीजिंग में चीनी विदेश मंत्री वांग यी की अगुवाई में इस्लामाबाद और काबुल के विदेश मंत्रियों ने बैठक की. साफ है कि इस पहल को आगे लाने में बीजिंग के अपने निजी स्वार्थ छिपे हुए है. जिनपिंग चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा का फैलाव अफगानिस्तान तक चाहते है, इसलिए वो दोनों के बीच तनाव करने की जुगत में है. बीजिंग काबुल को अपने खेमे में लाकर बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के तले जमीनी रास्ते से दक्षिणी और पश्चिम एशिया से जोड़ना चाहता है, ऐसा होते ही चीन जमीनी रास्ते का इस्तेमाल करके मध्यपूर्व एशिया में अपना सीधा कारोबारी (औपनिवेशिक) दखल देगा.

तल्खी भर रहे हैं पाक और तालिबान की रिश्ते
मीटिंग के दौरान दोनों मुल्कों को फिर काबुल को चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा परियोजना से जुड़ने का न्यौता दिया. जिसके जवाब में अफ़गानी विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी ने कुछ खास प्रतिक्रिया नहीं दी. आधिकारिक तौर पर अफगानिस्तान के जवाब का इंतज़ार इस मसले पर किया जा रहा है. कई अवसरों पर बीजिंग ने काबुल को तिजारत के लिए ग्वादर का इस्तेमाल करने को कहा, लेकिन तालिबान और इस्लामाबाद के कड़वे होते तालुक्कातों ने इस पेशकश को ठंडे बस्ते में डाल दिया. खास बात ये है कि इस बैठक के बाद इस्लामाबाद और काबुल ने राजनयिकों का आदान प्रदान करने के लिए रजामंदी जाहिर की. तालिबान को ये सहूलियत देकर पाकिस्तान मास्को, बीजिंग और आबूधाबी वाली फेहरिस्त में शुमार हो चुका है. इस पर चीन ने दावा किया कि दोनों मुल्कों के बीच गहरे रिश्ते पनपे इसके लिए वो हर मुमकिन कवायदों को अंजाम देगा. ड्रैगन के मुताबिक दोनों के बीच तल्खियां और खटास कथित विकास की राह में बड़ा अवरोधक है.

TTP है तनाव की बड़ी वज़ह
दोनों मुल्कों के बीच तल्खी की बड़ी वज़ह अफगानी सरजमीं पर तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) की मौजूदगी है. अफगानिस्तान में अमेरिकी सैन्य बलों की वापसी के बाद तालिबान वहां की सत्ता पर काबिज़ हो गया. जिसके बाद इस्लामाबाद और काबुल के रिश्तों में खटाई पड़नी शुरू हो गयी. गाहे बगाहे पाकिस्तान अफगान सरकार पर इल्ज़ाम लगाता रहा कि उसने टीटीपी को पनाह और रसद दी. बता दे कि इस संगठन ने पाकिस्तान की नाक में दम कर रखा है. बीते साल इस आंतकी संगठन और इससे जुड़े दूसरे इदारों ने पाक को हिलाकर रखा दिया, इसके सिलसिलेवार हमलों में ऑन रिकॉर्ड 6000 से ज्यादा लोग में मारे गए. मरने वालों में पचास फीसदी से ज्यादा पाक फौज के लोग शामिल है. टीटीपी सिर्फ इस्लामाबाद के लिए नहीं बल्कि ड्रैगन के लिए भी बड़ा सिरदर्द है. पड़ोसी मुल्क में कई विकास परियोजना में काम कर रहे चीनी इंजीनियरों, सर्वेयरों और लेबरों को ये आंतकी जमात निशाना बनाती रही. इन्हीं कारगुज़ारियों के चलते जिनपिंग को अपने निवेश और लोगों की चिंता सताने लगी. इंवेस्टेमेंट और चीनियों की हिफाजत को केंद्र में रखते हुए ही चीनी नेतृत्व पाक-अफगान रिश्तों में दोस्ती के रंग भरना चाहता है. उसे पता है कि सिर्फ तालिबान सरकार के दखल से ही टीटीपी पर नकेल कसी जा सकती है.

टीटीपी की हिफाजत करती तालिबान सरकार
बीजिंग में संपन्न हुई बैठक के दौरान पाकिस्तानी विदेश मंत्री इशाक डार ने अफगानी सरजमीं पर बने टीटीपी के ठिकानों, ट्रेनिंग सेंटरों और लॉन्चिंग पैड को लेकर चिंता जाहिर की. डार का समर्थन करते हुए वांग यी ने दोनों मुल्कों को मिलकर आतंकवाद का डटकर मुकाबला करने की नसीहत दी. इस मीटिंग से ये बात साफ हो चुकी है कि ड्रैगन कतर के नक्शे कदम पर वैश्विक पटल पर विश्वसनीय मध्यस्थ बनने के लिए छटपटा रहा है. चीनी पैरवी तालिबान को कितना अपने एजेंडे के तले ला पायेगी, फिलहाल ये कहा नहीं जा सकता. पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच विश्वास बहाली में रूकावट की सबसे बड़ी वज़ह फिलहाल टीटीपी ही है. दिलचस्प है कि इस्लामाबाद ने कई बार विद्रोही तालिबानी सरदारों को अपनी सरजमीं पर पनाह दी थी, बावजूद इसके तालिबान टीटीपी पर सख्त कार्रवाई करने से इंकार करता रहा. टीटीपी अफगानी सरजमीं की पूर्वी सीमा पर बैठा हुआ है, वो बेखौफ सीमा पार करते हुए पाकिस्तान में अक्सर हमले करता रहा. इसी वज़ह से दोनों के रिश्तों में तल्खियां चरम पर पहुंच गयी.

तालिबान टीटीपी पर कार्रवाई करने से बचता है, उसकी अहम वज़ह ये भी है कि टीटीपी लड़ाकों ने अमेरिका के खिलाफ तालिबानी प्रतिरोध का समर्थन किया था. तालिबान और टीटीपी वैचारिक स्तर पर सहोदर है, दोनों ही देवबंदी सुन्नी इस्लाम की डोर से बंधे हुए है. अफगान शरणार्थी मुद्दे पर वार्ता, डूरंड रेखा विवाद और सीमा पर तनाव जैसे मामलों में इस्लामाबाद के साथ किसी भी बातचीत के दौरान तालिबान टीटीपी को तुरूप के इक्के के तौर पर देखता है. दूसरा अहम बिंदु ये है कि इस्लामिक स्टेट-खोरासन प्रांत (आईएसकेपी) और नेशनल रेजिस्टेंस फ्रंट (एनआरएफ) अफगान सरकार के लिए पहले ही चुनौती है, ऐसे में टीटीपी को अपने खिलाफ करके तालिबान अपने लिए अंदरूनी खतरे को और ज्यादा नहीं बढ़ाना चाहेगा.

खराब हैं काबुल और इस्लामाबाद के कारोबारी ताल्लुकात
इस्लामाबाद और काबुल के बीच संघर्ष की अगली कड़ी तिजारत, टैक्सेशन और तस्करी से जुड़ी हुई है. दो साल पहले Q4 में पाकिस्तान ने अफगानिस्तान जाने वाले सामानों पर नए सिरे से एक्सपोर्ट ड्यूटी और एक्साइज लगाया, इसकी पीछे की वज़ह ये थी कि अफगानियों को एक्सपोर्ट किया जाने वाला सामान स्मगलिंग करके वापस पाकिस्तानी सरहदी इलाकों में लाकर बेचा जा रहा था. इसके चलते कई बड़े अफगान एक्सपोर्टर पाकिस्तान की ग्रे लिस्ट में आ गए. बड़ा कदम उठाते हुए पाकिस्तानी हुक्मरानों ने कराची बंदरगाह पर सामानों से भरे अफगान कार्गो कंटनरों की प्रोसेसिंग में इरादतन देरी की. इससे अफगान कारोबारियों के हौंसले पस्त पड़ने लगे. इसका तोड़ निकलते हुए काबुल के हुक्मरानों ने मिडिल ईस्ट और तेहरान की ओर रूख किया. दूसरे रास्तो से कार्गो को निकाला जाने लगा, जिससे कि अफगानियों की इस्लामाबाद पर निर्भरता शून्य होती चली गयी.

दूसरी ओर ईरानी बंदरगाह चाबहार में तिजारती कवायदें बढ़ने लगी. ग्वादर और कराची बंदरगाह के जवाब में नई दिल्ली ने चाबाहर में शाहिद बेहेश्टी टर्मिनल विकसित किया. हालांकि अफगानिस्तान के लिए इसकी उपयोगिता बेहद सीमित है. अफगानिस्तान लैंड लॉक्ड देश है, यहीं तालिबानियों की बड़ी चुनौती है. अगर उसे इस्लामाबाद से ग्वादर और कराची का एक्सेस नहीं मिलता है तो उसे चाबहार का रूख़ करना पड़ेगा. इसके लिए उसे जरंज-डेलाराम हाईवे से होकर गुजरना पड़ेगा, जिसे नई दिल्ली ने बनवाया है.

ये हाईवे निमरुज और हेलमंद जैसे अशांत इलाकों से होकर गुजरता है. इस रास्ते पर कई हथियारबंद कबायली मिलिशिया गुटों का दबदबा है, जो कि रंगदारी वसूलते है. इसके बाद जिस सड़क से अफगानी कार्गो को गुजरना पड़ता है वो मजार-ए-शरीफ, हेरात, कंधार और काबुल से होकर गुजरती है, जो कि काफी टूटी फूटी है. चाबहार-ज़ाहेदान रेलवे का धीमा काम इसी मसले की अगली कड़ी है. ये परियोजना ईरानी रेल नेटवर्क को मिडिल ईस्ट में और आगे बढ़ने के साथ कनेक्टिविटी देने की थी. नई दिल्ली ने इस प्रोजेक्ट में खासा दिलचस्पी दिखायी थी, जिसके लिए एक भारतीय कंपनी का भी चुनाव कर लिया गया था. उस दौरान तेहरान में बढ़ते अमेरिकी प्रतिबंध, सियासी खींचतान और लालफीताशाही के चलते भारत सरकार इससे अलग हो गयी.

कुछ समय बाद ईरान ने सीमित घरेलू संसाधनों की मदद से इस काम को आगे बढ़ाया. अगर ये परियोजना अमली जामा पहन लेती तो काबुल की निर्भरता इस्लामाबाद पर ना के बराबर होती. इन्हीं मजबूरियों के चलते अफगानियों को ग्वादर बंदरगाह की ओर रूख़ करना पड़ता है. इन्हीं पक्षों का आकलन करते हुए ही चीन ने CPEC से अफगानिस्तान को जोड़ने की पेशकश रखी, इससे चीन के कई रणनीतिक और सामरिक उद्देश्यों की पूर्ति होती है. इन सभी अहम वज़हों के चलते अफगानी हुक्मरान अपनी बेबसी के समीकरणों को भांपा और बीजिंग की अध्यक्षता हुई बैठक में इस्लामाबाद के सामने वार्ता मेज पर बैठे.

अवैध अफ़गान शरणार्थियों को लेकर है विवाद
पाकिस्तानी सरजमीं पर अवैध अफ़गान शरणार्थियों का मुद्दा दोनों मुल्कों के बीच टकराव की एक और बड़ी वज़ह है. हालिया दिनों में इस्लामाबाद ने अफ़गान नागरिकों को निर्वासित करने की अपनी कोशिशें काफी तेजी की है. इसी साल बीते अप्रैल महीने तक करीबन अस्सी हजार अफगानों को पाक रेंजरों+सेना ने वापस अफगानिस्तान में बलपूर्वक खदेड़ दिया. इस्लामाबाद ने इसे अवैध अप्रवास करार देते हुए अफगानियों को राष्ट्रीय सुरक्षा और उससे जुड़े दूसरे पक्षों के लिए जोखिमपूर्ण बताया. कई अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों और अफ़गान सरकार ने पाक की इस हरकत की खुलकर मजम्मत की. मानवीय संकट से जूझ रहे अफगानिस्तान के कई सीमायी इलाके निष्कासन के चलते भीड़भाड़ वाले हो गए. एकाएक पाक से वापस आये लोगों को संभालने में तालिबान नाकाम रहा. उन्हें खाना, पानी, छत्त और दवाईयां मुहैया करवाने के लिए तालिबान को बाहरी मदद लेनी पड़ी. फिलहाल वापस आए प्रवासी नाज़ुक अफगान बुनियादी ढांचे और सीमित संसाधनों पर भारी दबाव डाल रहे है.

अफगानिस्तान में है बेशकीमती कुदरती नियामतें
अफगानी जमीन दक्षिण एशिया, मध्य एशिया और मध्य पूर्व का चौराहा है, इसकी भू-रणनीतिक स्थिति और कुदरती नियामतें लगभग अनछुई हुई है. ये ड्रैगन अच्छे से समझता है. अगर यहां की आधारिक संरचनाओं में निवेश किया जाए तो ये एशिया के बड़े क्षेत्रीय व्यापारिक केंद्र के रूप में विकसित हो सकता है. अफ़गानिस्तान में लौह अयस्क, लिथियम और दुर्लभ मिनरल्स होने की संभावना है, जिसकी कीमत संभवत: 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से ज्यादा हो सकती है. इसी खजाने पर नज़रे गड़ाये बीजिंग ने तालिबान शसित देश में सबसे पहले अपने पूर्ण राजदूत की नियुक्ति की. कॉपर की माइनिंग के लिए तालिबान सरकार दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी तांबे की खदान में खुदाई के लिए चीन से बातचीत में लगी हुई है. साल 2023 के शुरूआत के साथ ही अमू दरिया बेसिन से क्रूड ऑयल निकालने के लिए तालिबान सरकार ने चीनी कंपनी से ढ़ाई दशक का समझौता किया. तखर, लोगर, घोर और हेरात जैसे प्रांतों में बेशकीमती मिनरल्स की माइनिंग के लिए चीनी कंपनियां तालिबानी सरकार के कम दरों पर कॉन्ट्रैक्ट हासिल कर चुकी है. CPEC के जरिए चीन काफी आसानी से इन खनिजों की सस्ती ढुलाई कर सकता है, बशर्तें अफगान सरकार खुद को CPEC से जोड़ ले.

अफगानी अस्थिरता कम कर निवेश करने की जुगत में चीन
कुदरती नियामतें, कच्चा तेल, क्षेत्रीय दबदबा और विस्तारवादी सोच चीन ने इस एक मीटिंग से काबुल से काफी कुछ साधने की कोशिश की. हालाँकि इसे हासिल करने में कई क्षेत्रीय चुनौतियां सामने आयेगीं. इस राह पर व्यापार विवाद, शरणार्थी संकट और टीटीपी समेत कई और दबे छिपे मसलों के चलते तालिबान के सामने पाकिस्तान और चीन को दो चार होना पड़ेगा. चीन लगातार इस्लामाबाद और तालिबान के बीच तनाव कम करने की कोशिश कर रहा है. अगर इस दिशा में उसकी कोशिशें जरूरत से ज्यादा ढीली पड़ी तो उसकी दुश्वारियां पुख्ता तौर पर बढ़ेगीं. तालिबान शासन में अफगान सरजमीं पर राजनीतिक, रणनीतिक और सामरिक अस्थिरतायें काफी है. ऐसे में माहौल में चीन की कारोबारी कवायदें और निवेश के लिए जोखिम काफी बढ़ सकता है.

नई दिल्ली के हित सीधे होंगे प्रभावित
चीन ने ये बैठक आयोजित करके अफगानिस्तान में नई दिल्ली के बढ़ते असर को कम करने की कोशिश की. बीजिंग ये अच्छे से जानता है कि अगर तालिबान उसके झांसे में आ जाता है तो निश्चित तौर पर अफगानिस्तान में भारत का क्षेत्रीय प्रभाव कम होगा. इसी साल जनवरी महीने में दुबई में भारतीय विदेश सचिव विक्रम मिस्री और तालिबान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी की मुलाकात हुई, जिसमें नई दिल्ली में अफगानिस्तान को अहम क्षेत्रीय साझेदार करार दिया. इसी मुलाकात के जवाब में बीजिंग त्रिपक्षीय बैठक आयोजित कर तालिबान को अपने खेमे में खींचने की कोशिश कर रहा है. बीजिंग में हुई मीटिंग इस्लामाबाद के लिए इस मायने में अहम है कि ऑपरेशन सिंदूर के बाद वो वैश्विक मंचों पर अलग-थलग पड़ा हुआ है. इस कवायद की मदद से वो भारत के खिलाफ दबाव बनाकर अपनी स्थिति मजबूत करने में लगा है.

सामरिक तौर पर अगर तालिबानी सरकार पाकिस्तान के साथ चीन के दबाव में अपने रिश्तों को मजबूत करेगी तो टीटीपी को भारत में घुसने का रास्ता मिल जायेगा, इससे आंतकी जोखिम भारत में काफी बढ़ जायेगा. साफ है कि ये त्रिपक्षीय बैठक भारत के लिए नई रणनीतिक चुनौती है, ड्रैगन और पाक की जुगलंबदी पश्चिम और दक्षिण एशिया में भारत के प्रभाव को कम करने के लिए बनी है. ऐसे में भारत को तालिबान के साथ अपनी कूटनीतिक भागीदारी बढ़ानी ही होगी. इसके लिए नई दिल्ली को अफगानिस्तान में मानवीय सहायता और बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को बढ़ाना होगा. इन हालातों के बीच चाबहार बंदरगाह जैसे रणनीतिक निवेश कुछ हद तक भारत के पक्ष में क्षेत्रीय संतुलन बना सकते है.

पाकिस्तान अप्रत्यक्ष रूप से चीन की औपनिवेशिक बस्ती बन चुका है, ठीक इसी तर्ज पर तालिबान को अपने पाले में खींचने के लिए बीजिंग इस्लामाबाद और काबुल को एक मंच पर लाकर हमराह बनाने की जुगत में लगा हुआ है. इसमें सिर्फ और सिर्फ चीन को ज्यादा फायदा मिलेगा, पाकिस्तान ड्रैगन का पिछलग्गू तो बन ही चुका है, अब देखना होगा कि तालिबानी सरकार क्या रूख़ अख्तियार करती है, इन हालातों को काउंटर करने के लिए नई दिल्ली किस तरह के कदम उठायेगी ये देखना भी दिलचस्प रहेगा.

(इस आर्टिकल के लेखक राम अजोर वरिष्ठ पत्रकार एवं समसमायिक मामलों के विश्लेषक हैं.)

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