Published On: Sat, Jan 4th, 2025

तमिलनाडु में आज से जल्लीकट्‌टू शुरू: इस बार 600 से ज्यादा बैल शामिल; बैलों पर काबू पाने उतरे 350 प्रतिभागी


चेन्नई4 घंटे पहले

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जल्लीकट्‌टू तमिलनाडु में पोंगल उत्सव के हिस्से के रूप में मनाया जाता है। - Dainik Bhaskar

जल्लीकट्‌टू तमिलनाडु में पोंगल उत्सव के हिस्से के रूप में मनाया जाता है।

तमिलनाडु में 2025 का पहला जल्लीकट्टू पुदुक्कोट्टई के गंडारवाकोट्टई तालुक के थचानकुरिची गांव में शुरू हो चुका है। इस बार जल्लीकट्‌टू में त्रिची, डिंडीगुल, मनाप्पराई, पुदुक्कोट्टई और शिवगंगई जैसे जिलों के 600 से ज्यादा बैलों को शामिल किया गया है।

वहीं, 350 प्रतिभागी बैलों को वश में करने की कोशिश करेंगे। थचानकुरिची गांव में राज्य सरकार में मंत्री रघुपति, मेयनाथन और कलेक्टर अरुणा ने कार्यक्रम का उद्घाटन किया।

थाचनकुरिची में 200 से अधिक पुलिसकर्मी सुरक्षा ड्यूटी पर हैं। साथ ही पशुपालन विभाग की ओर से 25 कर्मचारियों के साथ 7 मेडिकल टीमें भी तैनात की गईं हैं।

पुदुक्कोट्टई को सबसे ज्यादा संख्या में वडिवासल (बैलों के लिए एंट्री पॉइंट) और तमिलनाडु में सबसे ज्यादा जल्लीकट्टू की मेजबानी के लिए जाना जाता है।

आयोजन से पहले प्रतिभागियों की मेडिकल जांच की गई और आईडेंटिटी कार्ड जारी किए गए हैं। हर राउंड में, 30 प्रतिभागी आक्रामक बैलों को काबू करने की कोशिश कर रहे हैं।

तस्वीरों में देखिए जल्लीकट्‌टू का पहला दिन

थाचनकुरिची में खेल शुरू होने से पहले खिलाड़ियों ने शपथ ली।

थाचनकुरिची में खेल शुरू होने से पहले खिलाड़ियों ने शपथ ली।

पहले दिन थाचनकुरिची में बैलों को पकड़ने की कोशिश करते पहले 30 खिलाड़ी।

पहले दिन थाचनकुरिची में बैलों को पकड़ने की कोशिश करते पहले 30 खिलाड़ी।

क्या है जल्लीकट्‌टू और क्यों मनाते हैं करीब 2500 सालों से बैल तमिलनाडु के लोगों के लिए आस्था और परंपरा का हिस्सा रहा है। यहां के लोग हर साल खेतों में फसलों के पकने के बाद मकर संक्रांति के दिन पोंगल त्योहार मनाते हैं। तमिल में पोंगल का मतलब ऊफान या उबलना होता है।

इसी दिन वे नए साल की शुरुआत करते हैं। तीन दिनों तक चलने वाले इस त्योहार के आखिरी दिन बैलों की पूजा होती है। उन्हें सजाया-संवारा जाता है। फिर शुरू होता है जल्लीकट्टू। इसे एरु थझुवुथल और मनकुविरत्तु के नाम से भी जाना जाता है। यह खेल पोंगल त्योहार का एक हिस्सा है।

यह एक ऐसा खेल है जिसमें भीड़ के बीच एक सांड को छोड़ दिया जाता है। इस खेल में हिस्सा लेने वाले लोगों को सांड का कूबड़ पकड़कर उसे कंट्रोल करने की कोशिश करते हैं। कई बैलों का कूबड़ ज्यादा से ज्यादा देर तक पकड़े रखने वाला ही विजेता होता है।

जल्लीकट्टू का इतिहास 400-100 ईसा पूर्व का है, जब भारत में एक जातीय समूह अयार इसे खेलते थे। इसका नाम दो शब्दों से बना है-जल्ली (चांदी और सोने के सिक्के) और कट्टू (बंधा हुआ)।

जल्लीकट्‌टू में बैल मरने पर खिलाड़ी सिर मुंडवाते हैं, मृत्युभोज देते हैं

तमिलनाडु के लोग बैल को भगवान शिव का वाहन मानते हैं। उसकी पूजा करते हैं। उनके लिए बैल भाई-बाप की तरह है। उसके मरने के बाद रिश्तेदारों को शोक संदेश भेजते हैं। उसका मृत शरीर फूलों से सजाते हैं। इंसानों की तरह जनाजा निकालते हैं और पवित्र जगह पर दफनाते हैं।

घर लौटने के बाद अपना सिर मुंडवाते हैं। गांव के लोगों को मृत्यु भोज देते हैं। कुछ दिनों बाद उस बैल का मंदिर भी बनाते हैं और हर साल उसकी पूजा करते हैं।

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